Jharkhand- विधान सभा चुनाव के पहले भाजपा बदलेगी अपना चेहरा! अर्जुन मुंडा की वापसी या फिर से रघुवर राज

झारखंड को लेकर केन्द्रीय आलाकमान का ब्लू प्रिंट?

सवाल आजसू के अंदर भी उठता दिख रहा है कि जिस भाजपा के साथ खड़ा होकर कुर्मी समाज ने लोकसभा की 9 सीटों पर उसकी जीत में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया. उस कुर्मी समाज को हासिल क्या हुआ? ना तो भाजपा के कुर्मी नेताओं को तरजीह मिली और ना ही आजसू को प्रमुखता

रांची: लोकसभा चुनाव में आदिवासियों के लिए आरक्षित सभी पांच सीटों से भाजपा के सफाये के बाद झारखंड भाजपा के अंदर त्राहिमाम की स्थिति है, निशाने पर भाजपा प्रदेश अध्यक्ष बाबूलाल से लेकर संगठन मंत्री कर्मवीर सिंह के साथ ही प्रदेश प्रभारी लक्ष्मीकांत वाजपेयी भी है. सवाल पूछा जा रहा है कि वर्ष 2019 के विधान सभा चुनाव में आदिवासी बहुल 28 में 26 सीट गंवाने के बाद जिस उम्मीद के साथ बाबूलाल का 14 वर्षों का वनवास पर विराम लगाते हुए पार्टी में वापसी करवायी गयी थी, उसका अंजाम क्या निकला? विधान सभा चुनाव में कम से कम दो सीट तो फिर भी भाजपा के हाथ आयी थी, लेकिन इस बार तो लोकसभा की सभी पांच सीटों से भाजपा का सफाया हो गया, जिस सीता-गीता की जोड़ी को बाबूलाल अपना ब्रह्मास्त्र बता रहे थें और पार्टी बैठकों में हेमंत की गिरफ्तारी को झारखंड फतह करने का मास्टर कार्ड होने का दंभ भरा जा रहा था, उसकी तो हवा निकल गयी. उपर से संगठन से सारे पद पर बाबूलाल ने अपने पुराने मोहरों से स्थापित कर, भाजपा का झंडा ढोने वालों को साईड लाइन कर उनकी औकात बता दी. सवाल तो यह भी दागा जा रहा है कि आखिर बाबूलाल का मिशन क्या था? भाजपा की  वापसी या पुराना हिसाब चुकता करने की चाहत? आखिर भाजपा की यह दुर्गती किसने करवायी? और क्या इसके गुनाहगार सिर्फ बाबूलाल है? या फिर संगठन मंत्री कर्मवीर सिंह और प्रदेश प्रभारी लक्ष्मीकांत वाजपेयी की भी इसमें कोई भूमिका है?    

आदिवासी-कुर्मी नेताओं की बेचैनी

वहीं पार्टी के अंदर यह सवाल भी गहराने लगा है कि पहले भी वैश्य प्रेम में एक-एक कर राज्य सभा की सभी सीटों से वैश्य जाति को संसद भेजा गया, और एक बार फिर से एक वैश्य संजय सेठ को मंत्री बनाते हुए राज्य की बड़ी आबादी आदिवासी-कुर्मी के साथ ही मूलवासी समाज को किनारा किया गया, क्य़ा इसके साथ ही विधान सभा चुनाव में भाजपा की दुर्गती का प्लौट तैयार नहीं किया गया है? और यदि ऐसा होना निश्चित है, तो वह कौन है, जिसके इशारे पर भाजपा का सियासी जमीन खोदा जा रहा है? खास कर पार्टी के आदिवासी-कुर्मी नेताओं के बीच यह बेचैनी तेज हो रही है, भले ही कोई सामने आने से पहरेज कर रहा हो, लेकिन अंदरखाने यह सवाल तेजी से पसरता दिख रहा है.

झारखंड को लेकर केन्द्रीय आलाकमान का ब्लू प्रिंट

सवाल यह भी उठता दिख रहा है कि आखिर झारखंड को लेकर केन्द्रीय आलाकमान का ब्लू प्रिंट क्या है? क्या केन्द्रीय आलाकमान एक बार फिर से राज्य में नेतृत्व परिवर्तन पर विचार कर रहा है, क्या अर्जुन मुंडा को मंत्रिमंडल से दूर रखने के पीछे यही रणनीति है? क्या बाबूलाल का पर कतरते हुए एक बार फिर से अर्जुन मुंडा की ताजपोशी होने वाली है या फिर यह पूरी पटकथा रघुवर राज की वापसी के लिए तैयार किया जा रहा है? यह सवाल भी उछल रहा है कि आखिर महज पांच माह बाद होने वाले विधान सभा चुनाव को लेकर पार्टी की रणनीति क्या है? जिस तरीके से राज्य की एक बड़ी आबादी आदिवासी और कुर्मी को किनारा किया जा रहा है, क्या उस हालत में विधान सभा चुनाव में पार्टी की नैया डूबने वाली नहीं है? यदि आदिवासी समाज को छोड़ भी दें तो कुर्मी नेताओं के अंदर की बेचैनी भी यही है.

आजसू के सामने भाजपा का पिछलग्गू बनने की जरुरत क्या है?

सवाल आजसू के अंदर भी उठता दिख रहा है कि जिस भाजपा के साथ खड़ा होकर कुर्मी समाज ने कम से कम लोकसभा की 10 सीटें उसकी झोली में डालने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया. उस कुर्मी समाज को हासिल क्या हुआ? ना तो भाजपा के कुर्मी नेताओं को तरजीह मिली और ना ही आजसू को प्रमुखता, क्या सुदेश महतो को केन्द्रीय मंत्रिमंडल में स्थान देकर कुर्मी समाज को एक संदेश देने की कोशिश नहीं की जा सकती थी, और सबसे बड़ी बात, भाजपा के साथ जाने से आजसू के हिस्से में क्या आया? भाजपा पहले भी बगैर आजसू के सहयोग के विधान सभा चुनाव में अपना हश्र देख चुकी है? और उसे हमारी अहमियत का पता चल चुका है, इस हालत  में आजसू के सामने भाजपा का पिछलग्गू बनने की जरुरत क्या है? 

Edited By: Samridh Bharat

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